हमारे इतिहास की उत्पत्ति: चेसार के जन्म से लेकर 1597 तक

क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघ(कॉन्स्टिट्यूशन से उद्धृत – परिचय और पहला भाग 1-6)

क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघ का उदय, “ईशवचन के प्रति अति उत्साही और धर्मनिष्ठ व्यक्ति”, फादर चेसार दे बुस के माध्यम से हुआ है। इनका जन्म 3 फरवरी 1544 को फ़्रांस के कावाइयों में हुआ। चेसार एक अनुकरणीय बचपन और किशोरावस्था के बाद अठारह और तीस की उम्र के बीच समाज में अपनी एक जगह बना पाने की तलाश में पहले एक सैनिक के रूप में, फिर राजदरबार के एक कुलीन पुरुष के रूप में जीवन बीताकर अपने आरम्भिक उत्साह खो बैठते हैं। हालांकि ईश्वर ने दो अनुकरणीय ख्रीस्तीय लुईस गुईयो और अन्तोनिएत्ता रेवेईयादकी सहायता से उन्हेंह धीरे-धीरे मन-परिवर्तन के लिए प्रेरित किया, जो 1575 का पवित्र वर्ष में पूरा हुआ।

लगभग 38 वर्ष की उम्र में ईशशास्त्रा की पढ़ाई पूरी करने के बाद, चेसार को एक पुरोहित अभिषिक्त किया गया। युद्ध,अकाल एवं महामारी के कारणअपने लोगों पर आए सांसारिक और आध्यात्मिक दुख से व्यथित होकरऔर पवित्र आत्मा से प्रेरणा पाकर वे उपदेशक के कार्य तथा “ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत का प्रयोग” में स्वयं को समर्पित कर स्थानीय कलीसिया की सेवा करना प्रारम्भक किया।

फ़ादर चेसार थोड़े समय के लिए,कावाइयों के आश्रम में, एक आंशिक एकांतवासी का जीवन व्यरतीत करते हैं,जहाँ पवित्र शास्त्र पर मनन चिंतन और रोमन कैटेकिज्म के अध्ययन के बाद प्रकाश और शक्ति पाते हैं। इस तरह भजन संहिता की प्रार्थना को खुद की प्रार्थना बना लेते हैं – “तेरी शिक्षा मुझे ज्योति प्रदान करती और मेरा पथ आलोकित करती है” (स्त्रोत 119, 105)। आश्रम का यह अनुभव उनके अंतर्ज्ञान में इस बात की पुष्टि करता है कि “खोई हुई भेड़ों को मुक्ति के मार्ग पर लाने के लिए, पवित्र धर्मसिद्धांत का सतत अभ्यािससे बढ़कर और कोई दूसरा साधन नहीं हो सकता है, जैसे एक स्तंभ और नींव जिन पर कलीसिया टिकी हुई है”। सन्तता का मार्ग और धर्मशिक्षा का चुनाव करने में अनेक बातें उनपर प्रभाव डालती हैं, जैसे ट्रेंट कौंसिल, फिर उस समय के सिद्ध व्यक्तियों का जीवन और उनके कार्य,जैसे, संत फ़िलिप्प नेरी और उनका पल्लीक क्रीड़ास्थिल, लोयोला के सेंट इग्नेशियुस और जेसुईट समाज, आध्यात्मिक निदेशक जेसुइट फादर पिएर पेके और सबसे बढ़कर सेंट चार्ल्स बोरोमेयो, जिनके विषय फादर चेसार अपने जीवन के अंत में धन्यवाद देते हुए कहेंगे: “मैं उनका अनुकरण करने की इच्छा से इतना प्रभावित और अनुप्राणित हो गया कि इस दिशा में जब तक कुछ न कर लिया, मुझे शांति नहीं मिली।”

फादर चेसार के इर्दगिर्द उनके जीवन की सन्तता, प्रेरितिक उत्साह और धर्मशिक्षा पढ़ाने का तरीका से आकर्षित होकर दस पुरोहित, एक उपयाजक और एक कलीसियाई दल एकत्रित होता है। ये 29 सितम्बर 1592 को प्रोवांस के इल सुर-ला सोर्ग में,ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत को पढ़ाने, सामुदायिक जीवन की कुछ नियमावली बनाने, और एक स्थान पर रह सकने के लिए बिशप से आग्रह करने के उद्देश्य से एकत्रित होते हैं। इस प्रकार क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघ का जन्म होता है। हमारे प्रथम नियम हमारी संस्था के दोहरे उद्देश्य को रेखांकित करते है: पहला, हर किसी को, परन्तु विशेष रूप से छोटों और गरीबों को संबोधित ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत का अभ्यांस करना, और दूसरा, परोपकार के कार्य को सामुदायिक जीवन के माध्यम से लागू करना। इन नियमों में आज्ञाकारिता का निजी व्रत भी शामिल है। संस्थापक की मृत्यु के बाद से ही, संस्थात के प्रति उनके सदस्यों द्वारा महत्तंम वफादारी निभाने के लिए, पवित्रता, दरिद्रता, आज्ञाकारिता और धर्मसंघ में चिर स्था्यित्व् की प्रतिज्ञा के सार्वजनिक व्रत शामिल कर लिए गए।

23 दिसंबर 1597 को एक आदेश-पत्र एक्सपोशित देबीतुम के साथ पोप क्लेमेंट अष्टम के द्वारा कॉन्ग्रिगेशन को मान्यता मिली, जो इसकी प्रकृति और मिशन की पुष्टि करता है, जैसे, बच्चों और सरल विश्वासियों को ईशवचन की घोषणा के साथ-साथ, संस्कारों का समारोह, विशेष रूप से यूखारिस्त तथा पाप-स्वीकार संस्कार, प्रेरितों का धर्मसार, दस आज्ञाएँ, और कलीसिया के छ: नियम की शिक्षा देना। बाद में, हमारी डॉक्ट्रिनरी परंपरा संस्थापक द्वारा छोड़ी गई आध्यात्मिक और प्रेरितिक विरासत को धर्मसंघ के प्रतीक-चिन्ह में निर्धारित करेगी, जिसपर प्रभु के दुःख-भोग के उपकरणों से सजा एक क्रूस अंकित हैतथा “धर्मसिद्धांत में प्रभु की महिमा करें” (वोल्गाता बाइबिल,इसायस 24, 15) वाक्य लिखा हुआ है।

ट्रेंट कौंसिल के पथ से वैटिकन द्वितीय तक

डॉक्ट्रिन धर्मसंघ का उदय ट्रेंटकौंसिल के नवीनीकरण के आलोक में हुआ है,जिसे अपने इस मिशन कार्य की पुष्टि वैटिकन द्वितीय में मिली। धर्मसंघ को कलीसिया द्वारा पॉन्टिफिकल अधिकार के प्रेरितिक जीवन का एक याजकीय संस्था के रूप में क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघ या डॉक्ट्रिनरी (डीसी) के नाम से मान्यता प्राप्त हुआ है। यह पुरोहितों और धर्मबन्धुओं से बना है, जो अपने पुत्रों को “मार्ग, सत्य और जीवन” (योहन 14,8) रूपीख्रीस्त के साथ एक गहरी सहभागिता स्थापित करने के लिए कहता है जिसे संविधान का ईमानदारीपूर्वक अनुपालन करने के माध्यम से पूरा किया जा सकता है।

संस्थापक और प्रारंभिक सहबन्धुओं की प्रेरिताई (करिज्म) प्रथम नियमावली में ही स्पष्ट रूप से दिखती है:” सभी कोई ख्रीस्तीेय धर्मसिद्धान्ता और परोपकार में गहराई से आरोपित हो जाएँ; […] हमारे धर्मसंघ की परिपूर्णता की नींव इन्हींे दो गुणों पर आधारित है”। इसलिए डॉक्ट्रिनरी प्रेरिताई कुछ ऐसा है: “ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत का अभ्यािस” करने के मद्देनजर समुदाय में भ्रातृत्व जीवन जीना अर्थात वचन ग्रहण करने वालों के जीवन के अनुरूप सुलभ, समझने योग्य और आत्मीकय धर्मशिक्षा के माध्यम से ईश्वर के वचन की घोषणा करना है।

धर्मसंघ ईश्वर की दया में पूर्ण विश्वास के साथ आगे बढ़ा है;अतःयह व्यक्तिगत और सामुदायिक रूप से स्था;यी मनपरिवर्तन की परिस्थिति में खुद को बनाए रखता है; माँ मरियम के साथ क्रूस के रहस्य के चिंतन द्वारा पोषित होता है; सन्तता और मिशन का अनिवार्य माध्यमके रूप में साधना के अनुपालन को मानता है; “मसीह के उपहार के अनुसार” (एफे. 4,7) धर्म समुदाय और स्थानीय कलीसिया में अपनी पूर्ण परिपक्वता तक पहुंचने की स्थितियों को जानता है।

गुजरे समय के दौर में, पवित्रता और धर्मसिद्धांत के माध्यम से और कुछ प्रतिष्ठित सहधर्मबन्धुओं की गवाही का जीवन से, यहाँ तक की शहादत की कीमत चुकाने के एवज में भी, डॉक्ट्रिनरी प्रेरिताई समृद्ध हुई है जो पवित्रता और प्रेरितिक कार्य के लिए हमसे एक विशेष आचरण चाहती है। यह प्रेरिताई प्रार्थना, ध्यान और पवित्र शास्त्र के अध्ययन में, परंपरा और मैजिस्टेरियम की जानकारी रखने में, लोगों के दिलों में निहित सत्या और जीवन की जरूरतों पर ध्यान देने में, और ईश्वर के वचन को सुनने में अपना भोजन और शक्ति पाती है।

धर्मसंघ की प्रेरिताई की प्रासंगिकता को कलीसिया के कई दस्तावेजों में मिशनकार्य के दौरान वचन का प्रचार करने की प्रधानता के रूप में उल्लेखित गया है।एक ओर यहहमें प्रभु के सामने कृतज्ञ बनाता है,तो दूसरी ओर,प्रेरिताई का वरदान को और अधिक बढ़ाने के मद्देनजर गहरी ज्ञान प्राप्ता करने का आनंदमय उत्तरदायित्व की याद भी दिलाता है।

सदियों में ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत का अभ्याओस

जैसा कि 1667 का संविधान अभिपुष्ट करता है: “धर्मसंघ का उद्देश्य रोमन धर्मशिक्षा के अनुसार ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत की शिक्षा के साथ स्वयं का और हमेशा से दूसरों के उद्धार के लिए ध्या न देना रहा है और आगे भी रहेगा”। कॉन्सरटिट्यूशन का कापुत सुम्मुम अध्याय सं 1 यह निर्दिष्ट करता है कि ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत का अभ्यारस कैसे किया जाना चाहिए: “हमारे कार्य का अभ्यास तीन स्तरों में अथवा तीन प्रकार के धर्मसिद्धांतों में विभाजित है: लघु, मध्यम और वृहत धर्मसिद्धांत। यह पद्धति संस्थापक द्वारा हमें न केवल सौंपा गया और निर्धारित किया गया है, वरन परम धर्मपीठ द्वारा भी अनुमोदित और अत्यधिक अनुशंसित है”।

बीती सदियों में, धर्मसंघ की प्रेरिताई को उजागर करने वाली गतिविधियाँ समय और स्थान की ज़रूरत के अनुसार, जैसे कि छोटे और सामयिक उपदेशों से लेकर, मिशन तथा स्कूलों तक… बदल गई हैं, हालाँकि ये गतिविधियाँ प्रत्येक व्यक्ति को येसु ख्रीस्त तथा ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत के बारे में अवगत कराने के माध्यम हैं जिनका उपयोग डॉक्ट्रिन फादर्स करते थे। यह विचार डॉक्ट्रिनरी परंपरा में प्रवेश कर गया, जैसा कि कॉन्स्टिट्यूशन का कापुत सुम्मुम अध्याय वर्णन करता है:“व्याख्यान देते समय विवादों को प्रस्तुत न करें, न ही कठिन सवाल उठाएँ और ना ही नए धर्मसिद्धांतों को पेश करें; इसके बजाय अक्सर ध्यान से चुने गए उदाहरण और तुलनाओं को लाएँ; अत्यंत सावधानी और हो सके तो नहीं के बराबर गैर-ख्रीस्तीय लेखकों की बातें और तथ्यों का उल्लेख करें, इसी प्रकार दंतकथाएँ और सांसारिक अभिव्यक्तियों को भी;ग्रीक या हिब्रू में कोई उद्धरण नहीं दिया जाए, थोड़ा बहुत लैटिन में परन्तु तुरंत अनुवाद किया जाए और यदि पवित्र ग्रंथ की बात हो तो सख्ती से शाब्दिक अर्थ का पालन करें। अलंकृत, परिष्कृत और अत्यंत सुसंस्कृत शैली का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए, वरन सरल और आमभाषा की, और विशेष कर पुण्य तथा योग्य भाषा का प्रयोग करें जो भक्ति को जगाने में सक्षम हो। अंत में, कही गई बातों का विषयवार सारांश पेश किया जाना चाहिए और सब कुछ प्रस्तुपत करने में शिक्षण-पद्धति का अनुपालन करें जिसे संस्थापक ने अपने लेखन और उदाहरण के माध्यम से हमें सौंपा है और अपने शब्दों से सिफारिश किया है”। इसी तरह एक अन्य भाग में कहा गया है: “धर्मसंघ न सिर्फ शहरों के गिरजाघरों या महागिराघरों में, वरन गांवों और देहात के गिरजाघरों में, निजी घरों में, खेतों में, देहात में, पानी जहाजों पर, जेलों, अस्पतालों, यात्राओं और सैर के दौरान, बीमार और दोस्तों से मिलने के समय धर्मशिक्षा देने का उत्तरदायित्व वहन करता है।यदि संक्षेप में कहा जाए तो, जहाँ कहीं भी और किसी भी स्थिति में सुसमाचार प्रचार का मौका मिले, किया करें”।

यहाँ कुछ ऐसे क्षेत्र बताए जा रहे हैं जहाँ, शताब्दियों के दौरान, ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत के अभ्यादस का विकास हुआ है और सक्षम अधिकारियों द्वारा और पक्का भी हुआ।

17वीं और 18वीं शताब्दी के बीच ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत के सार-संग्रह के माध्यम से धर्मशिक्षा की सेवा में

फादर चेसार के उदाहरण पर, जैसा कि वे इस बात से आश्वस्त थे कि ट्रेंट कौंसिल के पल्ली-पुरोहितों की धर्मशिक्षा सीधे तौर पर आम विश्वासियों के लिए नहीं लिखी गयी थी, और जिसे लोगों के लिए अनुकूलित किया जाना था, डॉक्ट्रिन फादर्स ने भी ट्रेंट की धर्मशिक्षा का अध्यटयन किया तथा इसकी प्रभावशीलता को खोए बिना “सीमा के आधार पर” प्रस्ताव करने का तरीका का सावधानीपूर्वक अध्ययन करके धर्मशिक्षा की अपनी गतिविधियों को आधारित किया।

1704 में फादर बोरिलिओनी को रोम के एक छोटे समुदाय में स्थानांतरित कर दिया गया, जो सेंट निकोलस ऑफ़ द क्राउण्डि चर्च से जुड़ा हुआ था। यह सदन 1659 से कॉन्ग्रिगेशन का हाउस ऑफ द जनरल प्रॉसिक्यूटर के रूप में काम करता था और तब रोम में डॉक्ट्रिन फादर्स का एकमात्र घर हुआ करता था। इसी अवधि में फादर बोरिलिओनी ने ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत का सार-संग्रह लिखा। इसकी संरचना बहुत सरल है। ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत चार भागों में प्रतिपादित किया गया है: विश्वास, भरोसा, प्रेम और धर्म। सब कुछ प्रश्नोत्तरी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस रचना को इटली के विभिन्न हिस्सों में बड़ी सफलता के साथ 14 संस्करणों में निकाला गया।इस कार्य के साथ, फादर बोरिलिओनी खुद को क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघ की धर्मशिक्षा की परंपरा के साथ जोड़ डाला, अर्थात व्याख्या में सादगी लाना, सरल लोगों को संबोधित करना और प्रश्नोत्तरी में सूत्रीकरण करना।

हम सोस्पेल्लो के एक डॉक्ट्रिन फादर ओत्तावियो इम्बेसर्बी की प्रकाशित अनके कृतियों में से एक “आवियों के डॉक्ट्रिन फादर्स की पद्धति और अभ्यास के अनुसार ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत की पुस्तक” को याद कर सकते हैं। यह 1710 में वितेर्बो में छपी थी जो उस शहर के बिशप कार्डिनल सांताक्रोचे को समर्पित थी। अलग-अलग समयों और शहरों में इसके कई संस्करण निकले। 1862 में 23वां संस्करण निकला। 1897 को रोम में कम्पेंडियम ऑफ़ क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन शीर्षक के साथ इसका पुनर्मुद्रण हुआ। जब पहली बार इस “डॉक्ट्रिन” को छापा गया, थिएटिन धर्मसमाज के एक कार्डिनल, सेंट जोसेफ मारिया तोमासी, के प्रज्ञ सुविचारों से इसे सम्मानित किया गया और डॉक्ट्रिन फादर्स द्वारा संचालित सभी स्कूलों में उपयोग में लाया गया।

लोकप्रिय मिशन के माध्यम धर्मशिक्षा की सेवा में

कॉन्ग्रिगेशन 1711 का जनरल चैप्टर में फादर बदूह द्वारा डॉक्ट्रिनरी मिशन को अंजाम देने का तरीका से संबंधित प्राप्तर अनुभव तथा सफलता, फिर मिशन कार्य के लिए एक योजना तैयार करने की जिम्मेादारी को मान्यता प्रदान करता है। एक ऐसी योजना तैयार की गई थी जो कलीसिया तथा लोकधर्मियों की ओर अभिमुख एकरूप और उपयोगी मिशन कासेवाकार्य में पूरे कॉन्ग्रिगेशन का काम आ सके। 1716 में फादर बदूह ने “मिशन में लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए धर्मशिक्षा और भजन के साथ आध्यात्मिक साधना” नामक एक बहुत ही सफल पुस्तक प्रकाशित किया। यह पुस्तक मिशनरियों द्वारा उपयोग में लाए जाने का एक मैनुअल है;इसमें वह सब कुछ शामिल है जिसे लागू करना होता है, जैसे प्रार्थनाएँ, गीतों का संग्रह, विश्वासियों के लिए निर्देश, और विशेषकर एक प्रकार का “मिशन पत्रिका” है। यह पुस्तक एक जीवित मिशन है। फादर बदूह प्रस्तावना में लिखते हैं, “मैं जैसा पढ़ाता हूँ,इसे वैसा ही प्रकाशित कर रहा हूँ”। प्रत्येक मिशन दल चार या पाँच डॉक्ट्रिन फादर्स से बना होता था, जिनमें से एक को “मिशन प्रमुख” कहा जाता था। मिशन निर्देश अनिवार्य रूप से दो ध्येयों पर आधारित होता था, तपस्या और यूखारिस्त। 1823 का एक “टुलुज़ बायोग्राफी” में उस समय के सफल मिशनरियों में फादर बदूह को सबसे प्रख्यात और धर्मी के रूप में प्रस्तुत किया है।

विद्यालयों में धर्मशिक्षा की सेवा में

1706 में चिवितावेक्किया में डॉक्ट्रिन फादर्सके आने की तैयारी में, कार्डिनल सांताक्रोचे को कॉन्ग्रिगेशन के नाम पर एक स्मारिका प्रदान किया गया।इसमें कहा गया है कि धर्मसंघ का उद्देश्य “युवाओं को शिक्षा देने तथा ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत की शिक्षा देने के लिए बोर्डिंगस्कू्ल सह सेमिनरी की स्थापना करना है। संस्थान के कॉलेजों में युवाओं को शिक्षा देना शामिल है, जहाँ सभी प्रकार के विज्ञानों को पढ़ाया जाता है;सेमिनरी में याजक बनाने; मिशन में लोगों को शिक्षित करने तथा धर्मपरायणता के लिए उत्प्रेरित करने तथा हर प्रकार के व्यक्तियों को सरल, प्रचलित और फलदायी पद्धति के साथ ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत सिखलाना निहित है जो कि डॉक्ट्रिनरी की अपनी ख़ासियत है जिससे कॉन्ग्रिगेशन की सुखद सफलता के लिए प्रभु ईश्वर प्रचुर आशीर्वाद प्रदान करता है”।

1854 में फादर मेलोक्कारो ने सुपीरियर जनरल के रूप में पुनर्निर्वाचित होने के अवसर पर, सभी सहभाइयों के लिए एक पत्र लिखा जिसमें प्रत्येक डॉक्ट्रिन फ़ादर के लिए ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत के अभ्या्स के महत्व पर ध्यान केंद्रित किया तथा पुष्ट किया कि, “हमारा संविधान जोर देकर मांग करता है कि हमारे बोर्डिंग कॉलेज और विद्यालयों में हमारी प्रतिबद्धताओं के सादृश्य विज्ञान पढ़ाने के साथ-साथ, शिक्षकों की पहली और मुख्य चिंता धर्मशिक्षा और नैतिकता की शिक्षा देना होना चाहिए। इसी कारण उन्होंने बुद्धिमानी से यह सुनिश्चित किया है कि प्रत्येक स्कूल में प्रति दिन धर्मशिक्षा का पाठ और व्याख्या हो”। फिर पत्र में इस तथ्य का उल्लेख करते हुए आगे लिखते हैं कि संस्थापक हमें “जीवन्तए धर्मशिक्षा” के रूप में देखना चाहतेहैं।वे इस बात की भी पुष्टि करते हैं कि प्रत्येक डॉक्ट्रिन पुरोहित के लिए महत्वपूर्ण विशेषता उसके बोलने में सरलता होनी चाहिए।इस तरह वे, संस्थापक के अनुसरण के अनुसार, सभी श्रोताओं तक अपनी पहुँच बना सकते हैं, जैसे कि जिनकी शैली प्रचलित और सरल थी, और “उनके सुसंयोजित, विवेकपूर्ण और शालीनतापूर्वक दिए गए व्याख्यानों को न सिर्फ जनसाधारण वरन विद्वान भी खुशी और हित के साथ सुनते थे”। फादर मेलोक्कारो आगे लिखते हैं कि सभी डॉक्ट्रिन फ़ादर्स को ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत के शिक्षण के साथ ईश्वर की प्रजा का मार्गदर्शन करने के अतिरिक्त , पुरोहिताई पद सेनिहित सभी प्रेरितिक कार्यों का भी अभ्यास करना चाहिए, जैसे कि उपदेश देना, पापस्वीकार संस्कार सुनना, सेमिनरी, पल्ली, मिशन का संचालन करना। स्कूल का अध्यादपन कार्य धर्मसिद्धांत को बाधित नहीं करता है, बल्कि इसके विपरीत यह इसके लिए एक विशेष सुअवसर है।इटली के बोर्डिंग स्कूएल फ्रांस के डॉक्ट्रिन पुरोहितों द्वारा आयातित परंपरा का पालन करना जारी रखा, जैसे कि अन्य संस्थानों के बोर्डिंग स्कूपल की तुलना में धर्मशिक्षा शिक्षण के लिए अधिक समय देना, कड़ा अनुशासन,फिर खुले, संतुलित और मानवता से भरे शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित करना।

पल्लियों और धर्मशिक्षा के स्कूलों में धर्मशिक्षा की सेवा में

1725 में रोम के सांता मरियामोंती चेल्ली पल्ली की देखभाल का जिम्मा धर्मसंघ को मिला। यह ध्यान देना दिलचस्प है कि सांता मरिया के डॉक्ट्रिन फादर्स, पल्ली की देखभाल करने के अलावा,यहाँ एक स्कूल चलाते थे, फिर सेंट पीटर्स बसिलिका में धर्मशिक्षा सिखाते थे; वास्तव में, हर रविवार पांच पुरोहित लोकधर्मियों को अपनी प्रेरिताई (करिज्म) की सेवा देने बसिलिका जाते थे।यह प्रथा 1900 तक जारी रही थी।

1900 के प्रथम दशकों का कष्ट और पुनर्प्रारंभ

1900 के पहले दशक में क्रिश्चियन डॉक्ट्रिनफादर्स धर्मसंघ इतनी कठिन समय से गुजर रही थी कि कॉन्ग्रिगेशन फॉर रिलिजस को एक अपोस्तोलिक विजिटर भेजना पड़ा, जिसने पूरे समुदाय को बुलाया और कहा कि प्रीफेक्ट ऑफ़ रिलिजस, कार्डिनल विव्सि–जे-टुटो के नाम पर, क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघ का संचालन आस्कोली सात्रियानो डायसिस के बिशप एंजेलो स्त्रुफ्फोलिनी करेंगे, जो डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघके पूर्व महासचिव भी रह चुके थे। इन्हों ने धर्मसंघ की पूर्णकालिक सेवा देने के लिए आस्कोली सात्रियानो डायसिस त्याग दिया। वेजनरल काउंसिल तथा सभी सदनों के सुपीरियर्स की सूचि पेश करते हुए तुरंत काम पर लग गए, जिसे कॉन्ग्रिगेशन फॉर रिलिजस के प्रीफेक्ट से स्वीकृति मिल गई। नए सुपीरियर जनरल का पहला विचार फॉर्मेशन हाउस और नोविशिएट हाउस को बढ़ाना था। उन्होंशने रोम के विभिन्न गिरजाघरों में “ख्रीस्तीय धर्मसिद्धांत का अभ्या्स” करने के लिए डॉक्ट्रिन फादर्स के प्रबंधों का समर्थन किया। पोप बेनेडिक्ट XV, एक निजी मुलाकात में, महामान्यवर स्त्रुफ्फोलिनी से जानना चाहा कि धर्मसंघ में उनका काम आगे कैसे चल रहा है और उन्हें धर्मशिक्षा की पहल तथा नए फोर्मेशन हाउस का गठन करने पर खुशी जताई। फादर जनरल ने भी रोम की केंद्रीयता और सांता मरिया मोंतीचेल्ली में एक कैटेकेटिकल सेंटरकी स्थापना का समर्थन किया। रोम के विकारिएट के साथ समझौते के तहत उन्होंने धर्मशिक्षा की पाठशालाएं खोलीं जिनकी सेवा सेंट जॉन लातेरन, सेंट सिस्टो वेकियो, कुओ वादिस और पोंतेक्वात्रोकापी का क्रुसिफिक्स गिरजाघर में दी जा रही थी। धर्मसंघ के “पुनर्जन्म” के बाद की पहली प्राथमिकता धर्मशिक्षा और फोर्मेशन था।

क्रिश्चियन डॉक्ट्रिन फादर्स धर्मसंघ के सुपीरियर जनरल्स

• 1592-1607: सेंट चेसार दे बुस, संथापक;
• 1607-1609: Fr. Antonio Sisoine;
• 1609-1616: Fr. Antonio Vigier;
• 1616-1647: सोमास्कंस के साथ संयोजन;
• 1647-1653: Fr. Ercole Audifret;
• 1653-1657 : Fr. Baldovino De Breux;
• 1657-1666: Fr. Giovanni Astier (1663 में पुनर्निर्वाचित);
• 1666-1673: Fr. Francesco Aujas;
• 1673-1678: Fr. Vincenzo Giovanni Lemovix;
• 1678-1683: Fr. Carlo Gautherot;
• 1683-1688: Fr. Tommaso Chevalier;
• 1688-1689: Fr. Marco Antonio De Rojs;
• 1689-1694: Fr. Arnaldo Milhet;
• 1694-1700: Fr. Pietro Annat;
• 1700-1705: Fr. Bartolomeo L’Hopital;
• 1705-1711: Fr. Pietro Annat;
• 1711-1717: Fr. Francesco Bouilhade;
• 1717-1729: Fr. Giovanni Griffon (1723 में पुनर्निर्वाचित);
• 1729-1733: Fr. Stefano Chaussac;
• 1733-1737: Fr. Maturino Baccarere;

• 1737-1744: Fr. Antonio Jaume;
• 1744-1750: Fr. Francesco Mazenc;
• 1750-1762: Fr. Antonio Suret (1756 में पुनर्निर्वाचित);
• 1762-1764: Fr. Giovanni Reinald;
• 1764-1776: Fr. Luigi Chastent de Puissegur (1770 में पुनर्निर्वाचित);
• 1776-1794: Fr. Pietro Bonnefoux (1782 और 1788 में पुनर्निर्वाचित);
• 1794-1802: Fr. Felice Fasella;
• 1802-1808: Fr. Dionigi Blancardi;
• 1808-1814: Fr. Giuseppe Lissonio (1811 में पुनर्निर्वाचित);
• 1814-1818: Fr. Dionigi Blancardi;
• 1818-1824: Fr. Antonio Della Corte;
• 1824-1830: Fr. Carlo Vassia;
• 1830-1836: Fr. Michele Alberti;
• 1836-1842: Fr. Pietro Silvestro Glauda;
• 1842-1848: Fr. Pietro Paolo Meloccaro;
• 1848-1852: Fr. Francesco De Rosa;
• 1852-1866: Fr. Pietro Paolo Meloccaro (1860 में पुनर्निर्वाचित); 1866-1869: एपोस्टोलिक विजिटर;

• 1869-1880 Fr. Andrea Torrielli;
• 1880-1887: Fr. Biagio Ferrara;
• 1887-1909: Fr. Tommaso Lanza (1892, 1898 और 1904 में पुनर्निर्वाचित);
• 1909-1912: Fr. Vincenzo Brugnoli;
• 1912-1916: Mons. Angelo Struffolini;
• 1916-1928: Fr. Giuseppe Giacobbe (1922 में पुनर्निर्वाचित);
• 1928-1934: Fr. Giuseppe Bajlon;
• 1934-1945: Fr. Giuseppe Rori (1940 में पुनर्निर्वाचित);
• 1945-1946: विकर जनरल Fr. Giovanni Del Pero;
• 1946-1958: Fr. Carlo Rista (1952 में पुनर्निर्वाचित);
• 1958-1964: Fr. Francesco Scrivano;
• 1964-1970: Fr. Ottorino Rolando;
• 1970-1976: Fr. Orlando Visconti;
• 1976-1988: Fr. Pasquale Amerio (1982 में पुनर्निर्वाचित);
• 1988-1994: Fr. Rinaldo Terzo Gasparotto;
• 1994-2006: Fr. Luciano Mascarin (2000 में पुनर्निर्वाचित);
• 2006-2018: Fr. Giovanni Mario Redaelli (2012 में पुनर्निर्वाचित);
• 2018- Fr. Sergio La Pegna

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